Friday, May 27, 2016

Badlaab

वो कहतें हैं कि देश बदल गया और दशाएं बदल गई
देश और दशा का तो नहीं मालूम नहीं मगर दिशाएं जरूर बदल गयीं
हवाओं ने रुख मोड़ लिए और मौसम मनो खो से गए
सालों भर बसंत सा आ गया जिसका प्रमाण कमरों में रखे फूलों से आती है
बगीचे के फूल तो अब खिलते ही नहीं और अगर कहीं खिल भी जाएँ तो उहें पहचाने कौन !
गरीबों को गर्मी पसंद आती थी मगर गरीब तो कहीं रहे ही नही अगर बचे भी हों तो कहने में शर्म सी आती है।
बहुत बदल गया काफी कुछ बदल गया।
शहर की बत्तियों पर अब भीख नहीं मिलता क्यूँकी लोगों ने समझ लिया है की ये भिखमंगे फायदा उठा रहे हैं ,
भीख मांगना गैर क़ानूनी तो पहले से था मगर अब लोगों को बात समझ में आने लगी है।
जिसके भावनाओं को मिटा ना सके उसके अस्तित्व को ही मिटा दिया।
आखिर बदलाब तो लाना ही था और बदलाब में कुछ तो बदलेगा।
प्रजातांत्रिक परंपरा व्यवस्था को दीर्घायु भले ही कर दे मगर शाशकों के लिए तो अल्पायु ही लाती है ,
इतिहास ही नहीं वर्तमान भी गवाह है अब तो की मध्यमवर्गीय समाज ना तो इसका होता है ना ही उसका,
उसके लिए तो बस अर्थ का ही अर्थ रह गया है , और अब तो ये बात विकसित समाज की सूचक हो गयी है।
बदलाब के सूत्रधारों ने इस मध्यम वर्ग का साथ लेकर उपभोक्तावादी व्यवस्था को  लोकतंत्र का जामा पहनाया है,
सारे बदलाब हो गए हैं अब तो, बस शाशन की निरंतरता कायम होनी है।
भोजन बस्त्र और आवास ये सब प्राचीन बातें हैं, अब तो visa, net और exchange rate का ही कष्ट रह गया है।
पडोसी जाने ना जाने मगर विदेशी जरुर पहचाने लगे हैं हम सबको।
बदलाब  जो आया है, बदलना तो पड़ेगा ही।
बीते दिनों की बातें भी बेमानी जान पड़ती हैं, कुछ लब्ज निकल भी जाएँ तो शर्मिंदगी सी होती है ,
वो सभाओं में पूछते हैं  'बदला की नहीं बदला' और "बदला" के नारों से गगन गुंजायमान हो जाता है ,
ध्वनि तरंगें  प्रकाश पर अपने विजयश्री की उद्घोषणा करते हैं ,
कल्पनारूपी ज्ञप्ति प्रमाणिक सत्य पर अपनी श्रेष्ठता साबित करती है।
असहमति पिछड़ेपन की निशानी मात्र रह गयी है।
बदलाब जो आया है , बदलाब जो आया है।

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