Saturday, January 16, 2016

सुनी - सुनाई

वो आये वो रुके और वो चले गए I
न जाने कितने कितनी बार आए,
कितनो ने क्या कहा और क्या क्या कहा !
सुनने वाले सुनते रहे क्यूंकि कान बंद न हो सके,
कुछ ने दोनों ही कान खोल दिए और फिर तो,
आई और गई की धाराएं चल पड़ी !
कुछ ने पुस्तिका खोली और कुछ ने तो कलम भी खोल लिए,
मानो इन धाराप्रवाह शब्दों के माने न बदल जाएँ !
कहने सुनने को जो भी था वो सब तो बोलने बहलाने में निकल गया,
दिमाग दिल पर भाड़ी पड़ गया और दिल बेचारा फिर से सती हो गया!
मन चंचल है और चंचल्ता छिप न सकी,
लाख रोकने पर भी जबान फिसल ही गया!
बात यूँ न थी की सजदे हमने न किये मगर क्या करें
खुदा ही बदल गया!
और हम फिर से काफिरों की महफिल में हो लिए I
रात के साये में जैसे आग भी दुबक गया,
सहर का मुँह तो राख भी न देख सका !
कुछ के ठहाकों में न जाने कितनी और आवाजें मिल गई,
मगर असीम प्रयत्नो के बाबजूद ये मिश्रण ही रह गए ,
काफी उलट फेर के बाद भी ये मिश्रण यौगिक न बन सके!
यही बात उस तिनके की तरह सहारा है जो उस ऋषि को डूबते समय मिल गया था !

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